गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

अंतर्मुखी


 चौदह साल की उम्र क्या हुई जैसे उसे उमर कैद हो गई। अचानक उसे माबाप के व्यवहार में बड़ी तब्दीली दिखी। इतनी रोक टोक," यहां मत जाओ वहां मत जाओ,इससे मत बोलो उससे मत बोलो,धीरे बोलो, हंसो मत लडकी हो"

उसे लगने लगा," मैं बड़ी क्यों हो रही हूं क्यों बड़ रही है मेरी उम्र"

हां कल ही की तो बात है मैं स्वच्छंद थी गली मोहल्ले में बच्चो के साथ दौड़ती थी,तो आज अचानक मैं कैदी क्यों बन गई।

उसे इस व्यवहार से घुटन सी होने लगी।

हफ्ते में एक दिन पिता का लेक्चर होता,जो लंबे दिशा निर्देशों से भरा होता,कैसे घर से बाहर निकलना है। किसी लड़के से बात हो रही है ऐसा मेरे कानो में कभी न पड़े ये ध्यान रखना।

हसती खेलती जिंदगी में दहशत गर्दी फैला दी।

वो तो चंचल हवा सी बहना चाहती थी।

चमन में खुशबू सी बिखराना चाहती थी।

उन्मुक्त पंछी की तरह,

अनंत आकाश में उड़ना चाहती थी।

मगर वो किसी कमरे में कैद हवा सी हो गई,जैसे उफनती नदी के जलप्रवाह को बांध बना कर रोक दिया गया हो,लगता था बांध खुलते ही नदी का जल जलजला बन जाएगा।

नवी कक्षा में सिलेबस साथ साथ होमवर्क भी बहत बड़ा,उसका लम्बा समय स्कूल में या होमवर्क करने के बीतता था,बचा समय मांबाप के लेक्चर सुनने में।

उन्होंने एक चंचल मासूम बच्ची की इच्छाओं का ऐसा दमन किया कि शायद वो खुद भी कभी अहसास नहीं कर पाए की वो गलत थे।

इसी उम्र से मधुर के एक नए व्यक्तित्व का जन्म हुआ। जिसे हम कहते हैं... अंतर्मुखी..

उसके दिमाग में एक डर बैठा दिया कि तुम थोड़ी भी जीवन में चूक करोगी तो ये समाज तुम्हें गलत कहेगा। मासूम दिमाग में आप जिस तरह की बात डाल दें वो जीवनभर के लिए पत्थर की लकीर बन जाती है।

आंखीर मां बाप हैं बड़े है अनुभवी है शायद सही ही कहते होंगे,बच्चे मान लेते हैं।

धीरे धीरे उसने अपना स्वाभाविक व्यक्तित्व खो दिया अब उसका जो व्यक्तित्व उभर कर सामने आया वो दें थिनुस्के संस्कारों की उसकी परवरिश की। बचपन से वो क्रिएटिव माइंड की थी,मगर पढ़ाई के अलावा कुछ करना भी उसके पिता को शान के खिलाफ़ लगता था,उसे कम उम्र से ही लिखने की आदत बन गई कविता कहानी।

उसकी इस हॉबी का पिता ने ही डिसकैरेज कर दिया।

लेकिन उसका लिखना तब भी जारी ही था मगर वो किसी से अपने इस शौक को कभी उजागर नहीं करती थी ।

क्योंकि उसके अकेलेपन की साथी उसकी कलम थी,वो अपने लिए लिखती थी,जिस तरह के व्यवहार से वो गुजरी वो सब कुछ लिख डालती।

सही है अपने बच्चों पर निगरानी रखना उन्हे अच्छे बुरे की पहचान कराना मगर उनको डरा धमका कर समाज से अलग कर देना कहां तक सही है? 

इसी बंदिश में बारहवीं पास हो गई कॉलेज का सफ़र शुरू हो गया,कॉलेज की लाइफ स्कूल से बिल्कुल अलग होती है। इस वजह से पिता की स्टिक्टनेस और बढ़ी।

कॉलेज में उसने कभी किसी लड़के को बोलने का मौका ही न दिया कोई बात भी करता तो वो पहले उसे भाई बुलाने की शर्त रखती,ऐसे क्लास का हर दूसरा लड़का उसका भाई हो गया।

कई सीनियर लड़के भी बात करने की कोशिश करते उसका भाई का टैग उनपर भी लग जाता है। इसी तरह एक सीनियर उसका भाई बना और उसने उसको सच में भाई ही माना क्योंकि उस लड़के की शकल उसके भाई से काफी मिलती जुलती थी। उस लड़के ने भी उसे बहन ही मान लिया,वो थे उसके "माधव भईया"क्योंकि सीनियर था तो पास आउट होकर कॉलेज से निकल गया।लेकिन मधुर माधव भईया को राखी ज़रूर भेजती।

लगभग एक साल बीत गया एक दिन मधुर के पिता जी उसको साथ लेकर मार्केट गए थे, चौराहे पर अचानक सामने की गली से माधव भईया आके टकराए।

मधुर सरप्राइजिंगली बोली माधव भईया आप?

माधव मुस्कुराया। पिता जी दोनो, को घूर रहे थे मधुर ने थोड़ा सहज होकर पिता जी से कहा"ये माधव भईया हैं मेरे सीनियर"


माधव भईया ने नमस्ते किया,पिता जी ने मधुर से कहा,"तू छू कर मैं पूछ लेता हूं कौन है?"

उन्होंने माधव से पूछा,"क्या पढ़ाई की हैं तुमने?"

माधव,"जी अंकल मैंने एमकॉम किया है."

पिता जी,"एम कॉम कॉमर्स??"आई ब्रो उचकाकर बोले

"जी"

पिता जी,"और इसकी बीएसस मतलब साइंस "

उन्होंने घूर कर कहा "ये साइंस और कॉमर्स का कॉम्बिनेशन समझ नहीं आया"

मधुर ने पिता जी को रोकना चाहा,पिता जी बोलते ही रहे

"तुम एमएससी वाले होते तो एक बार को मैं समझ सकता था एक डिपार्मेंट के स्टूडेंट हैं,तो पहचान बन सकती थी"

"मगर ये तो हद ही हो हुई" पिता जी न जाने क्या बड़बडा गए।

मधुर का सिर शर्म से नीचा हो गया,माधव भईया बुरी तरह खिसिया गए,वो कुछ बोल ना पाए,उन्हे उचित लगा भी नहीं।

पिता जी की खरीखोटी सुनकर वो अपने रास्ते निकल गए।

मगर मधुर उनके व्यवहार से बहुत लज्जित हो गई।

माधव भईया की बेइज्जती से उसे बहुत दुःख पहुंचा।

मगर उनसे क्या कह सकती थी।

माधव भईया वो अपमान न भूले होंगे,और मधुर अब जब कभी रास्ते में दूर से माधव भईया दिख भी जाते तो नजरे चुरा कर रास्ता बदल देती,उसके बाद उसने किसी भी रक्षाबंधन पर माधव भईया को राखी नही भेजी।

वो बात सालो उसके में से न निकली और पिता जी भी उस घटना को लेकर अक्सर उसका ताना देते रहे।


ऐसी कि वो कभी भी कॉलेज में राउंड लगाने आ पहुंचते, कहां खड़ी है किस से बात कर रही है इस सब का पता लगाने।

एक दिन की बात है जब वो अपने किस शिक्षक के केबिन में उनसे किसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए गई थी। पिता जी की कॉलेज में शिक्षको से भी अच्छी खासी पहचान थी।

वो अचानक उनके केबिन में आ धमके।

उनको देख कर वो इतना घबरा गई की उसका दिमाग ही थोड़ी देर के लिए सुन्न पड़ गया, घबराहट से उसने अपने ही पिता जी को (हाथ जोड़ कर) नमस्ते बोल दिया।" उसका चेहरा डर से लाल पद गया। केबिन में उनकी एंट्री के साथ ही वो बाहर निकल आई।

मगर अपने शिक्षक के पास खड़े होने पे भी पिता जी आ गए तो उसे लगा जैसे कोई अपराध हो,उसे तो किसी से बोलना ही नहीं है (ये डर और दहशत इस कदर थी।)

पिता जी के लिए,उनकी बेटी का शिक्षक के पास जाना एक सहज बात थी,मगर वो अब तक सही गलत का क्राइटेरिया समझ नहीं पाई थी(क्योंकि वो नही जानती थी,पिता कैसे रिएक्ट करें).

घर पर भी भाई बहिनों को आपस में बातचीत करने की आज़ादी नहीं थी। वो कभी बात भी करते तो बहुत ही दबी हुई आवाज़ में कि कहीं पिता के कानों में ना पड़ जाए।

अगर गलती से कभी पिता ने कानो में आवाज़ पड़ गई तो समझ लो आज अर्थी ही उठ गई।

एक दिन पिता किसी काम से बाज़ार गए थे बच्चों ने कुछ राहत की सास ली अब इकट्ठे हुए आपस में बातचीत करने लगे इतने दिन बात मौका जो मिला था अब अपनी अपनी सुना रहे थे,उनको समय का ध्यान न रहा और कब पिता जी घर वापस आ चुके थे उन्हें नही पता लगा। 

किसी बात पर आज मधुर बिल्कुल ठहाका लगा कर हंस पड़ी इतने में उसके नजरे सामने खड़े पापा जी की नजरों से मिली जिनकी आंखे गुस्से में लाल थी, मधुर सकपका गई, काटो तो खून नहीं,बाकी बच्चे सब एक पल में चूहों की तरह अपने बिलनमे समा गए। मधुर वहां पर स्टेच्यू बन गई थी।

उन्होंने मधुर को बहुत ऊंची आवाज में झिड़का,"बेशर्म,ये लड़की के लक्षण हैं,इतनी जोर से हंसना,पूरे मोहल्ले में तेरी हंसी गूंज रही है,मैं थोड़ी देर को घर से बाहर क्या निकला तू तो आज़ाद ही हो गईं,शर्म हया अब भूल ही गई"

मधुर की आंखे नीची हो गई आंखो से अश्रु धार फूट पड़ी और है उसके पिता का एक नियम और था रो ओ धो ओ चाहे मरो पर आवाज़ नहीं होनी चाहिए।

उस दिन से उसकी हंसी हमेशा के लिए छीन गई वो फिर कभी ना हंसी।


सोमवार, 10 अप्रैल 2023

मां...


 मां तो मां होती है, ममतामई,निष्कपट,निष्पक्ष, निश्चल। मगर अपवाद हो सकते हैं उन्हें मां की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए जिन्हें सिर्फ जन्म देना हो या जन्म न देना हो,उसके बाद उनकी सारी रिस्पांसिबिलिटी खत्म,वो मां नहीं।

 मैं मां की बात कर रही हूं जिस शब्द को बोलने मात्र से आप उस निश्चल प्रेम से स्वयं ही सराबोर हो जाते हैं।

वो भी मां ही तो थी ममतामई जिसने अपने दोनो बेटो की परवरिश में कोई कोर कसर न छोड़ी,क्योंकि पति दिन रात शराब पीकर होश हवास गवाए रहता था, इसलिए उससे किसी भी तरह की सहायता की उम्मीद निरर्थक थी। 

उसने कभी अपनी किसी भी शारीरिक तकलीफ को अपनी संतान के पालन पोषण में बाधक न बनने दिया,उसने हर सुख सुविधा अपने बच्चों को दी। उनको पढ़ाया लिखाया लायक बनाया। 

पति की दिनचर्या जारी ही रही,जी भर कर शराब पीना और फिर हाथापाई गाली गलौच,लड़के बड़े हो चुके थे ज़ाहिर सी बात है पिता का रवैया उनसे बर्दाश्त न होता,मगर एक उधर बड़ा बेटा भी पिता के नक्शे कदम पर ही  था,घर से बाहर नौकरी थी इसलिए मां को इस बात की जानकारी न थी,अच्छी खासी नौकरी थी मां ने बड़े बेटे की शादी करवा दी।

कुछ ही समय में बहु मायके वापस चली आई,लड़ाई झगड़े का  कारण मां को तब जाकर पता लगा,उसका दिल बैठ गया,इतने बड़े बेटे को क्या समझाए,फिर भी कोशिश की मगर बात न बनी,कुछ दिन बहु बेटे के साथ रहती फिर लड़ झगड़ कर वापस आ जाती। मां जानती थी गलती बेटे की ही है,मगर क्या कर सकती थी। क्रोधी झगड़ालू व्यक्ति को भी समझाया जा सकता है,मगर शराबी कबाबी को समझा पाना भी बूते से बाहर था।

दूसरा बेटा भी अच्छी खासी जॉब में लग गया था,घर के लड़ाई झगड़े कलह की वजह से घर कम ही आता था मगर वो कुछ समझदार जरूर था उसने खुद को शराब से दूर ही रखा,मां ने अच्छी लडकी देखकर उसकी भी शादी करवा दी।पति के कलह से बहु को दूर रखने के लिए बहु को बेटे के साथ ही भेज दिया। 

ख़ुद बस शराबी के साथ रो धोकर दिन काट रही थी,उसे लगता अपनी जिम्मेदारी तो उसने निभा ली,इतनी जिंदगी तो कट ही गई इसी तरह और कट जाएगी।

बड़े बेटे बहु में सुलह नही हुई,दोनो अलग अलग ही जीवन बीता रहे थे। बहु के साथ न रहने पर बेटे पर अंकुश पूरी तरह खत्म हो गया,वो और ज्यादा पीने लगा इतना कि वो बिस्तर से उठ भी न सकता था, ऑफिस जाना उसने बंद कर दिया ऑफिस से कंप्लेंट लेटर घर पहुंचा मां क्या करती क्योंकि यहां बाप बेहोश,छोटा बेटा अपनी फैमिली के साथ अलग ही रहता घर आना जाना भी उसका कम ही था,पति के व्यवहार की वजह से मां इस बेटे पर भी अपना ज़ोर न समझती। किसको कहती, बड़े बेटे का कुछ करे, कोई समाधान नहीं किया गया,उसकी नौकरी चली गई।  

न वो घर छोड़ सकती थी न पति को क्योंकि उसके पीछे वो घर को आग भी लगा दे इसका भरोसा न था।

कुछ महीने ऐसे ही बीते, अचानक एक दिन बड़े बेटे की न्यूज़ मिली,"वो अपने कमरे में मृत पाया गया" पिता को आज थोड़े पल के लिए होश आया, दुःख ग्लानि हुई,"कहीं न कहीं मेरा रवैया इस दुर्घटना के लिए जिम्मेदार है,वो छोटे बेटे के साथ बड़े बेटे के मृत शरीर को लेने निकल पड़ा,रास्ते भर रोता खुद को कोसता, पर इन सब बातों से होना क्या था,जो होना था वो तो हो ही चुका था,बाप ने खुद बेटे के शव को मुखाग्नि दी, धूं धूं करके जल कर देखते ही देखते शरीर भस्म हो गया,मां के मन से पीड़ा न गई न किसी को कह सकती थी अपना दर्द किसको कहती। इस घटना से पति कुछ दिन तक सकते में रहा, अपराध बोध में जलता रहा। मगर कुत्ते की दुम कहां सीधी होती,कुछ दिन शोक मना कर शराबी आदमी फिर ट्रैक पर लौट आया वही दारू सुबह शाम। उसका मैखाना फिर गुलज़ार हुआ।

छोटी बहु बेटे घर न लौटे,पति का सुबह सूर्योदय के साथ ही गाली गलौच शुरू होता,पत्नी से मार पीट शोर शराबा उनका पूरा मोहल्ला सुनता,रात जब तक वो सोता न था तब तक थोड़े थोड़े अंतराल में शोर आता रहता। लोगो को भी आदत हो चुकी थी शोर शराबा सुनने की। शराबी तो शर्म बेचकर शराब खरीदता था,एक दिन की बात होती तो शायद शर्म की बात होती ये तो रोजमर्रा का काम हो गया था।

उस औरत के भी क्या कर्म रहे जिसे कभी पारिवारिक सुख न मिला। एक बेटा चला गया था जो था उससे भी अब मिलना न होता।

इसी तरह कई साल बीते पोता पोती भी अब बड़े हो गए थे,मगर उनका दारूबाज दादा न बदला।

एक दिन मां सुबह काफी देर तक जब पति की आवाज न आई तो समझ नही पाई आज गाली नहीं सुनाई पड़ी।

पति के कमरे में पहुंची, दारूबाज जगा भी न था,बेड से नीचे सिर लटकाए,अब भी गहरी नींद में था,मां धीरे से बड़बड़ाई "इतना पी ता है की सुधबुध ही खो बैठता हैं"

देखती है गौर से सोया है..मगर शरीर में कोई हलचल नहीं..करीब जाकर उसके सिर को दोनो हाथो से सहारा दे कर बेड पे रखती है,जैसे ही उसके चेहरे पे नज़र गई वो सन्न रह गई,चेहरा नीला पड़ गया था, होठ के एक किनारे से सफेद झाग सा निकल कर सूख चुका था। उसने उसकी नब्ज टटोली और समझ गई कि अब उसकी भी कहानी खतम हो गई। 

देखते ही देखते दारू उसके घर के दो सदस्यों को लील  गई,उसने बड़ी गहरी सांस ली और धम्म..से पास में पड़ी कुर्सी पे बैठ गई।

आज उसकी आंख में एक आंसू न था..

 दिल में कोई दर्द न था...

मानो उसे लग रहा था, जैसे अपराधी को उसके किए की आज सजा मिल गई।

-मनुप्रियश्री 

https://youtu.be/pPJ0yvehyEI

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स्री हूं, पाबंदियों की बली चढ़ी हूं, मर्यादा में बंधी हूं, इसलिए चुप हूं, लाखों राज दिल में दबाए, और छुपाएं बैठी हूं, म...

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