सोमवार, 11 जनवरी 2021

नहीं हूंगी जिस दिन मैं।



नहीं हूंगी जिस दिन मैं
सशरीर इस धरा पर
मेरी कर्कश वाणी भी
तुम्हें मधु सी मधुर
जान पड़ेगी।
इस वाणी का वजूद था
या चिरकाल सा,
कोई स्वप्न था,
ये भ्रम तुम्हें रहेगा
क्योंकि वो वाणी ,
अब स्मृति में होगी।
जीते जीते न सुधरा था
जो वजूद मेरा ।
अब बड़ा साफ सुथरा सा
लगेगा।
क्योंकि हूं कहाँ मैं अब?
तर्क वितर्क करने को,
तुमसे बात बात पर 
 उलझने को।
अब तो तर्क वितर्क
सवाल जवाब सब तुम्हारे हैं
मैं तो सिर्फ स्मृति हूँ
बस उन विचारों के भंवर में
 एक मौन मूरत हूँ।

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