रविवार, 29 सितंबर 2019

मै इंसान हूं

मै इंसान हूं।
हिन्दू के साथ हिन्दू,
सिक्ख के साथ सिक्ख,
ईसाई के साथ ईसाई,
और मुसलमान के साथ,
मुसलमान हूं।
मैं इंसान हूं।
मेरा कोई एक धर्म नहीं,
मेरी कोई एक जात नहीं,
मुझे सिर्फ इतना पता है,
मेरी रगों में खून है ,
और तेरी रगों में भी खून है,
मै इंसान हूं,
ये जो धर्म का अहम है,
इसे तोड़ पाने में असमर्थ हूं,
इस वजह से,
कुछ परेशान हूं।
मै इंसान हूं।
मैंने नवरात्री मनाई,
मैंने लोहड़ी की आग सेकी,
मैंने ईद की सेवइयां खाइं,
मैंने ईस्टर की,
खुशियां मनाईं
फिर भी शायद,
कुछ कमी ज़रूर रही होगी,
मेरी सच्ची भावनाओं में,
जो किसी कट्टर के,
दिल में जगह ना पाई,
मै इंसान हूं।
हिन्दू के साथ हिन्दू
मुसलमान के साथ
मुसलमान हूं।
- ममता पाठक

गुरुवार, 26 सितंबर 2019

भटकाव


क्यों मन तुम्हारा भटक गया है?
उस अदृश्य और कल्पित के चारों ओर,
सिर्फ भ्रमित ही जो करता हो,
उद्गम भी नहीं जिसका,
नहीं कोई छोर।
क्या वही एक प्रत्यक्ष रुप है?
क्या वही शाश्वत सत्य है जीवन का?
आज है पर जो कल नहीं है।
जो अमर फूल नहीं,
किसी चमन का।
क्यों अंतरात्मा को तुमने हमेशा?
पीड़ा पहुंचाई अप्राप्य को लेकर?
सोचो क्या मिला तुम्हें इस तृष्णा से?
क्या पाया तुमने स्वयं का सुकून खोकर?
फिर क्यों सोचते हो उसकी तुम?
जो स्वयं ईश्वर के भी वश में नहीं।
सही राह पर,एक बार,
मुड़ कर तो देखो,
मंजिल भी अवश्य ही होगी वहीं।
समाज का अभिन्न अंग,मानव हो तुम,
सोचो ना केवल,अपने ही सुख की।
मुझे पता है,ज्वाला जली है,
किसी मन में,अनंत दुख की।
आज दबा दो अतृप्त इच्छाएं
इच्छाएं तो,असीमित हैं संसार में
सीमित है तो है मानव जीवन,
अपनी जीत को ना बदलो हार में।
तुम स्वाधीन हो,फिर भी क्यों?
जकड़ रहा तुम्हें,अनचाहा बंधन ?
स्वयं ही बेचैनी को पकड़कर,
क्यों पल-पल तोड़ा है अपना मन ?
उस भ्रम में तुम्हें पड़ना ही क्यों है?
जो बिना आग झुलसाता हो,
दर्द ही जो रिश्ता तुम्हें देता हो,
जो हर पल ह्रदय तरसाता हो,
बनो सबल तुम धैर्य न छोड़ो,
पिता के बाजुओं का तुम बल हो
मां की आशाओं के सूरज,
तुम भविष्य का सुनहरा कल हो।
रोशनी को फिर,क्यों पीछे छोड़
तम की ओर बढ़ा लिए कदम?
विस्मृत कर दो इस घातक पल को,
स्मृति करती नहीं पीड़ा को कम,
तुम बसंत में खड़े होकर भी,
क्यों चाहते हो पतझड़ में जाना?
खुशी के उपवन में खेलते हुए भी,
चाहते हो वेदना को गले लगाना?
व्यथित हो गया क्यों शांत मन,
उसका भी तुम ही हो कारण,
स्वयं ही जन्मदाता हो अपनी व्यथा के,
व्याधि का भी तुम ही हो निवारण।
वह अभिलाषा भी क्या अच्छी है?
जो पथभ्रष्ट कर असफल बना दे!
क्या उस ख्वाब को सुनहरा कहोगे?
जो पूरा होने से पहले रुला दे।
कोमल नहीं,फौलाद बनाओ मन को
तुम वीर सहनशील पुत्र, बनो मां के,
मुरझाओ नहीं खिलने से पहले,
अखंड गौरव बनो भारत मां के।
ह्रास होने से बचाओ अपनी उर्जा,
दिशाहीन होने से भावों को रोको
जिंदगी का उद्देश्य नहीं भावुकता,
भ्रमित करें जो उन अस्त्रों को फेकों
प्रभात भले ही चला गया हो,
लेकिन अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है।
साहसी बनो, नासूर बनने से घाव को रोको,
मेरे मन की बस यही दुआ है।

सोमवार, 23 सितंबर 2019

कुछ ऐसे भी लोग होते हैं।



कुछ ऐसे भी लोग होते हैं,

अंदर से दर्द सहते हैं,

बाहर से हंसमुख रहते हैं,

भरी हुई आंखों में वो,

मुस्कुराने की कोशश करते हैं।

कुछ ऐसे भी लोग होते हैं।

तन्हाइयों में रोते हैं,

आंसुओं में सोते हैं,

जमाने के डर से वो,

भावों को दबाया करते हैं।

कुछ ऐसे भी लोग होते हैं।

कुसूर कुछ नहीं है उनका,

फिर भी भीतर से घुटते रहते है,

अंदर से टूटे हुए हैं वो,

उन्हें लोग,बाहर से ज़िन्दा कहते हैं।

कुछ ऐसे भी लोग होते हैं।

उनकी भी मजबूरी है,

कुछ अपनों से दूरी है,

गमों को भुलाने की कोशिश में,

वो खुद को भुलाए रहते हैं।

कुछ ऐसे भी लोग होते हैं।

मन को शंका में डुबोए रहते हैं,

हर पल कहीं खोए रहते है,

अंतर्मन के भावावेग को वे,

अश्कों में भिगोए रहते हैं।

कुछ ऐसे भी लोग होते हैं।

बुधवार, 18 सितंबर 2019

लम्हा लम्हा🌎

यूं ही निकाल देते है,
हम अपनी ज़िन्दगी,
कुछ गैरजरूरी कामों में,
और कुछ गैरजरूरी बातों में,
मगर भूल जाते हैं,
लम्हा लम्हा खिसक रही है
ज़िन्दगी।
लम्हा लम्हा उम्र की
परतें बढ़ रहीं हैं
विचारों में नहीं
कामों में नहीं
मगर चेहरे पर
धीरे धीरे झलकने
लगी है परिपक्वता
सामंजस्य बैठाना है
हमें चेहरे-विचारों
और कर्मो की परिपक्वता
के बीच।
हमें परिपक्व होना
है उतना ही
जितने हम अपनी उम्र से
परिपक्व हो रहे हैं।
क्योंकि पशु नहीं हैं हम
मनुष्य हैं।
हमारे उत्तरदायित्व
कुछ और भी हैं।
तो फिर क्यों हम,
सिर्फ पेट भरने को जिएं?


गुरुवार, 12 सितंबर 2019

कभी रिमझिम☔कभी तबाही🌊


बड़े समय से सोच रहे थे,
बादलों 🌥को नभ में खोज रहे थे।
प्रकट होगा कब,नन्हा सा बादल☁,
धरती मां पर बरसेगा🌧 किस पल।
सूख रहे थे धरती आंगन,
तड़प रहे थे वन
🌲🌲🌲🌲
और उपवन
🌳🌳🌳।
बरसेगा कब नन्हा सा मेघ,
बढ़ेगा कब नदियों का वेग🌊।
सूर्य🌞ने,उमस में किया इज़ाफ़ा,
तन मन सबका गरमी से कांपा।
सब गरमी में उबल रहे थे🌡,
बढ़ते तापमान में जल🔥 रहे थे।
तभी अचानक हां अचानक,
सौर मंडल में हुई गर्जना🌩🌩⚡⚡
घटाओं ने आरम्भ किया,
बरसाना हां बरसाना🌦🌧🌨
हाय बारिश उफ़ बारिश⛈⛈,
कैसी हुई प्रचंड बारिश🌪
रुकने का नाम नहीं लेती,
रोद्र रूप धरती बारिश।
बस्तियां भीगी घर भीगे,
और भीगी हवेलियां
गांव भीेगे देहात भीगे,
भीगी शहर की गलियां।
जंगल भीगे,बगीचे भीगे,
भीगा पेड़ का पत्ता पत्ता।
सज्जन भीगे,शराबी भीगा,
भीगा गली का कुत्ता कुत्ता।
अख़बार समाचार चैनलों की,
बनी सुर्खियां।
गरजती,उफनती
घरों में घुसती नदियां।
बिजली ठप की,
सड़क तोड़ डी,
भंग किया संचार माध्यम🌀☎📞📱,
यात्री बसों ट्रेनों में व्याकुल,
जल ही जल हर तरफ़ कायम।
हाय तबाही कैसी फैलाई,
पानी रेे पानी।
बरसात के बहाने,
कई जानें ले गया पानी।
मगर यह प्रकृति की भूल कहां हैं?
तबाही का जिम्मेदार,
मनुष्य 😈यहां है।
छोटे से स्वार्थ की भरपाई को,
नज़रंदाज़ करता रहा है,
सबकी भलाई को।

रविवार, 8 सितंबर 2019

चमत्कार होते है 🌠 महसूस तो कीजिए 🌟


चलिए उस युग की ओर चलते हैं जहां आज की तरह संसाधन नहीं थे,एक बहुत ही कठिन ज़िंदगी आदमी जी रहा था शारीरिक रूप से बहुत ही कर्मठ था और सबसे अच्छी बात ये थी कि स्वस्थ था,बीमारियां तो वह जानता भी नहीं था,प्रकृति पूरे ब्रह्मांड की सुंदर और हरी भरी🌲🌳 थी,आज तो प्रकृति की ये सुंदरता कुछ ही स्थानों में सिमट गई है,जहां प्रकृति सुंदर है वहां लोग भी खिले हुए हैं जहां प्रकृति की सुन्दरता ख़तम हो गई वहां लोग भी मुरझा गए है और सुंदरता खत्म करने वाले भी हम ही हैं, प्रकृति को देखो,पृथ्वी को🌎आकाश को,चांद को सितारों को🏙 देखो,बदलते मौसम और नज़ारों को देखो⛅🌦🌧,चलो छोड़ो कहीं मत देखो बस अपने आप को ही देख लो,क्या आप चमत्कार नहीं हो? क्या आपने कभी इस बात को महसूस किया? नहीं,नहीं हम सब जीवन की अजीब सी उलझनों में उलझे हुए हैं,कई तरह की चिंताएं हमें घेरे हुए हैं,हमें आज की फ़िक्र नहीं हमें आने वाले कल से खौफ है वो कैसा होगा? अरे भाई अभी जो है उसे तो जी लो,महसूस कर लो उस चमत्कार को जो हमारे चारों ओर घट रहा है,हम निर्जीव यंत्रों 🕰🛎🚲🚛🚐को अपनी दिनचर्या में उपयोग करते है,जो पेट्रोल डीजल केरोसिन या विद्युत से चलते है और उसकी प्रशंसा करते हैं, प्रशंसा करनी भी चाहिए, इन सारे यंत्रों ने हमारे जीवन को आसान कर दिया है मगर सबसे अधिक प्रशंसा का पात्र है वह यंत्र जो रक्त से संचालित होता है,👤रक्त ही जिसकी ऊर्जा है,ऐसा यंत्र जिसे किसने बनाया ये कोई नहीं जानता,तर्क वितर्क तो बहुत है वैज्ञानिक आधार भी बहुत है,सतत क्रमिक विकास मगर फिर भी एक अन्तिम बिंदु है जहां कोई नहीं पहुंचता,विज्ञान प्रमाण देता है पुष्टि करता है,क्या आप संतुष्ट हैं?जन्म मृत्य निरंतर हम देखते आ रहे हैं इसलिए हमें आश्चर्य नहीं होता है हमने देखते देखते ये स्वीकार कर लिया है कि मृत्यु शाश्वत है,चलिए मान लिया जन्म मृत्यु एक सत्य है तो क्या ये आपके नियंत्रण में है? तो आप तय क्यों नहीं कर पाते आज ही जन्म हो आज ही मृत्यु हो? इसके लिए भी हमारे पास तर्क वितर्क हैं अगर वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग बन्द कर दिया जाए तो क्या जन्म मृत्यु हमारे नियंत्रण में है?कहावत है जाको राखे साइयां मार सके ना कोई,कितनी बार हमने ये प्रमाणित होते देखा है,कोई मृत्यु के बहुत करीब जाकर भी मरता नहीं,अचानक किसी की याद आ जाए तो उसी दिन उससे बात होना हम टेलीपैथी कहते हैं, सोचिए तो वो कितनी शक्तिशाली ऊर्जा  उत्पन्न हुई हमारे अंदर और किसी और के पास मीलों दूर पहुंच गई,ये संयोग इसलिए नहीं क्योंकि ऐसा बार बार होता है,किसी के बरताव से हमें उसकी मन:स्थिति🌪 समझ आती है,लोगो का सकारात्मक और नकारात्मक प्रतुत्तर समझ में आता है,हम सब ये जान रहे है महसूस कर रहे है तो आप कहेंगे मनोविज्ञान है,हां अवश्य मनोविज्ञान है पर जो प्रारंभ है उसको किसने देखा,उत्पति किसने देखी हां प्रमाण सभी ने दिए,इस तरह के बहुत तथ्य मैंने पढ़े है,समझे है मै कोई अनविश्वासी नहीं हूं,मगर मुझे एक शक्ति पर विश्वास है,इस सृष्टि की बागडोर किसके हाथ में हैं,ये दिन रात,आपदाएं,जलवायु परिवर्तन 🌈ये सब कुछ किसके हाथ में है? हां प्रदूषण हमारे हाथ में☃ है, असंतुलन हमारे हाथ में है,मगर ये जलवायु जो सदियों से संतुलित थी वो किसके नियंत्रण में था,हां हम कुछ भी गलत करते है देखिए कैसे असंतुलित होती है जलवायु,वो दंड है जो हमें मिल रहा है,जो शक्ति सबकुछ करती है जिसके होने का मुझे विश्वास है,इतना सकारात्मक बदलाव और ऐसी इच्छाएं जो हमारे अंदर हैं तीव्र है,उनके लिए इतनी उत्कंठा है जो हम उनका पूरा होते हुए अपनी आंखो से देखते है,ऐसा आपमें से भी बहुत लोगों ने अनुभव किया होगा,चाहे वो सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव है मगर सच ये है कि इस चमत्कार ⚡का अस्तित्व है,सोचिए पूरे विश्वास के साथ जो भी करना हो उसको पूरा कीजिए विश्वास रखेंगे तो अवश्य सम्पन्न होगा हर काम और आप महसूस करेंगे कि चमत्कार सच में होते हैै। हम सबने देखे है पर महसूस नहीं किए,गौर करने लगेंगे तो चमत्कार को महसूस करेंगे।

सोमवार, 2 सितंबर 2019

अस्थिर मन🌪

मन से हुआ व्यथा का उदगम,
तरंग उठती,उमंग गिरती।
घने घने ये काले बादल,
बहा ले गए नैनों का काजल।
वर्षा ऋतु छाई है हर पल,
इस व्यथा का शिखर कहां है?
इच्छाओं का अंत कहां है?
क्यों आशाएं जन्म है लेती?
क्यों जिज्ञासा शांत नहीं होती?
रुकता नहीं विचारों का मंथन,
मन सोचता,जन है रोता।
क्यों भावों के बीज है बोता?
क्यों सुनहरे ख्वाबों में खोता?
हर पल किसकी प्रतीक्षा रहती?
क्यों स्नेह घृणा को सहती?
आशाओं का सूर्य सो गया,
अनन्त गगन में कहीं खो गया।
यह अंधकार बढ़़ता ही जाता,
आंखों से है स्वप्न चुराता,
तृष्णा बढ़ाता स्नेह घटाता।
पल पल जहन में एक ही अास,
क्यों नहीं इस इच्छा का नाश?
मन क्यों नहीं वश में आता
क्यों राह से है बिछड़ जाता?
व्याकुलता को है क्यों बढ़ाता?
क्यों राही को है भटकाता?

स्त्री एक शक्ति

स्त्री हूं👧

स्री हूं, पाबंदियों की बली चढ़ी हूं, मर्यादा में बंधी हूं, इसलिए चुप हूं, लाखों राज दिल में दबाए, और छुपाएं बैठी हूं, म...

नई सोच