कभी दो पल साथ बैठ कर
सुकून से कभी
उनसे बात न हुई।
मगर प्यार बहत था।
किसकी तरफ़ से था।
ये मत पूछो।
मगर प्यार बहत था।
ये एक इकलौता सच था।
कभी दो पल साथ बैठ कर
सुकून से कभी
उनसे बात न हुई।
वो व्यस्त बहुत थे
उनकी आदतों के
हम भी अभ्यस्त बहुत थे
वो बादल भी काल्पनिक थे
जो बरस न सके उम्र भर।
वो न जाने किस बात की
किस दुनिया की
बेहतरी में जुटे थे।
और हम उनके भ्रामक
व्यवहार से लुटे थे।
कभी दो पल साथ बैठ कर
सुकून से कभी
उनसे बात न हुई।
ऐसे रिश्तों में फिर
गिले शिकवे के सिवा
बचता ही क्या है?
हां जिम्दारियों का,
निर्वाह किया
इसमें झूठ भी है कहाँ?
मग़र क्या रिश्तों को
समय की दरकार नहीं?
कभी दो पल साथ बैठ कर
सुकून से कभी
उनसे बात न हुई।
Nice poem i am going to share this
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