गली में उछलते कूदते
बच्चे से न जाने कब
मैं बड़ा हो गया।
आज आईने में
खुद को देखा
तो पता लगा
मैं बूढ़ा हो गया।
मुझे तो सिर्फ और सिर्फ
वो बचपन याद है।
वो गलिओं की
खाक छानना याद है।
वो पिता की डांट
वो माँ का थप्पड़ याद है।
गली में उछलते कूदते
बच्चे से न जाने कब
मैं बड़ा हो गया।
स्मृति में खुशी टटोली तो
जवानी में वो मिली नहीं
जवानी की कोई कहानी
भी मुझे याद नहीं।
बस जवानी की
दिवास्वप्न
वो हड़बड़ी याद है
जिम्मेदारियों की
गठरी ढोता
जीवन याद है।
हर बीतते सफ़र में
कुछ बेहतरी की
चाहत याद है।
गली में उछलते कूदते
बच्चे से न जाने कब
मैं बड़ा हो गया।
पूरी जवानी निकल गई
कुछ कर गुजरने की
चाह भी मेरे मन मे ही
रह गई।
आज अफ़सोस के
सिवा,भला क्या रहा?
न उम्र रही न समय रहा
कल कल के फेर में
मेरा सारा जीवन
कल में ही रह गया।
गली में उछलते कूदते
बच्चे से न जाने कब
मैं बड़ा हो गया।
आज आईने में
खुद को देखा
तो पता लगा
मैं बूढ़ा हो गया।
Nice poem
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