बचपन
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा
बचपन के चिन्तामुक्त दिनों में
अठखेलियों में
निसंकोच बर्ताव में
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा?
उस उन्मुक्त हंसी में।
क्षण भर के लगाव में
अगले क्षण के अलगाव में
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा
स्वच्छंद जीवन मे भी
अक्सर बड़ो को देखकर
तुमने,
बड़ा होना ही चाहा।
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा
जवानी
बचपन में रहकर तुमने
बचपन को भी नहीं चाहा
तो जवानी में आकर
इसे क्यों?
तुमने चिरस्थाई चाहा?
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा?
क्यों जवानी को ही चाहा?
चाहे उम्र कितनी बढ़ जाए।
क्यों चाहा कि
चेहरे पर कोई,
सिलवट न आए।
बढ़ती उम्र के ख़ौफ को
स्वंय पर हमेशा
हावी पाया।
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा?
हर उम्र का अपना सौंदर्य है।
हर उम्र की अपनी परिपक्वता।
प्रकृति का नियम ही ये हैं
जीवन में बनी रहे निरंतरता।
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा?
आंखिर जीवन नश्वर ही है
अंत हमारी मृत्यु ही है।
जीवन एक विस्मय ही है।
फिर भी तुमने क्या चाहा?
बुढापा
रोकता रहा बुढ़ापे को तू
मगर मृत्यु पे तेरा ज़ोर न होगा।
बुढ़ापा तुझे नही चाहिए।
मृत्यु को तू टाल न सकेगा
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा
आज नहीं तो कल
स्वीकार तुम्हें करना ही होगा।
बुढ़ापा भी अपनी जगह सुंदर है।
हरदम तू जवान ही रहेगा
तो जवानों का मार्गदर्शन कौन करेगा
वो भी जवानी की चाहत रखे रहेंगे
बताओ फिर बूढ़ा कौन होगा?
हे मनुष्य तुमने क्या चाहा?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें