वो गरीब रहा
वो गरीब रहा कंगाल रहा
विपत्तियों के बोझ से
ज़िंदगी भर मालामाल रहा।
वो गरीब रहा कंगाल रहा
अंतर में उसके
वेदना का ही भूचाल रहा
वो स्नेह न बरसा पाया।
हर तरफ घृणा का जाल रहा।
वो गरीब रहा कंगाल रहा।
देखता रहा काल को,
धैर्य बँधाता रहा मन को,
रोकता रहा पीड़ा के,
उफ़नते बांध को।
कोसता रहा जीवन को।
वो गरीब रहा कंगाल रहा।
हां कुछ पल मुस्कुराया वो,
लहलहाती फ़सल देखकर।
और कई सावन रोया।
बंजर भूमि देखकर।
वो गरीब रहा कंगाल रहा।
उसकी चिंता,चिता बनी,
उसके दुःखो की,
कथा बनी।
अधरों के नीचे रही तनी,
अनकही उलझी,
व्यथा बनी।
वो गरीब रहा कंगाल रहा
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