गुरुवार, 26 सितंबर 2019

भटकाव


क्यों मन तुम्हारा भटक गया है?
उस अदृश्य और कल्पित के चारों ओर,
सिर्फ भ्रमित ही जो करता हो,
उद्गम भी नहीं जिसका,
नहीं कोई छोर।
क्या वही एक प्रत्यक्ष रुप है?
क्या वही शाश्वत सत्य है जीवन का?
आज है पर जो कल नहीं है।
जो अमर फूल नहीं,
किसी चमन का।
क्यों अंतरात्मा को तुमने हमेशा?
पीड़ा पहुंचाई अप्राप्य को लेकर?
सोचो क्या मिला तुम्हें इस तृष्णा से?
क्या पाया तुमने स्वयं का सुकून खोकर?
फिर क्यों सोचते हो उसकी तुम?
जो स्वयं ईश्वर के भी वश में नहीं।
सही राह पर,एक बार,
मुड़ कर तो देखो,
मंजिल भी अवश्य ही होगी वहीं।
समाज का अभिन्न अंग,मानव हो तुम,
सोचो ना केवल,अपने ही सुख की।
मुझे पता है,ज्वाला जली है,
किसी मन में,अनंत दुख की।
आज दबा दो अतृप्त इच्छाएं
इच्छाएं तो,असीमित हैं संसार में
सीमित है तो है मानव जीवन,
अपनी जीत को ना बदलो हार में।
तुम स्वाधीन हो,फिर भी क्यों?
जकड़ रहा तुम्हें,अनचाहा बंधन ?
स्वयं ही बेचैनी को पकड़कर,
क्यों पल-पल तोड़ा है अपना मन ?
उस भ्रम में तुम्हें पड़ना ही क्यों है?
जो बिना आग झुलसाता हो,
दर्द ही जो रिश्ता तुम्हें देता हो,
जो हर पल ह्रदय तरसाता हो,
बनो सबल तुम धैर्य न छोड़ो,
पिता के बाजुओं का तुम बल हो
मां की आशाओं के सूरज,
तुम भविष्य का सुनहरा कल हो।
रोशनी को फिर,क्यों पीछे छोड़
तम की ओर बढ़ा लिए कदम?
विस्मृत कर दो इस घातक पल को,
स्मृति करती नहीं पीड़ा को कम,
तुम बसंत में खड़े होकर भी,
क्यों चाहते हो पतझड़ में जाना?
खुशी के उपवन में खेलते हुए भी,
चाहते हो वेदना को गले लगाना?
व्यथित हो गया क्यों शांत मन,
उसका भी तुम ही हो कारण,
स्वयं ही जन्मदाता हो अपनी व्यथा के,
व्याधि का भी तुम ही हो निवारण।
वह अभिलाषा भी क्या अच्छी है?
जो पथभ्रष्ट कर असफल बना दे!
क्या उस ख्वाब को सुनहरा कहोगे?
जो पूरा होने से पहले रुला दे।
कोमल नहीं,फौलाद बनाओ मन को
तुम वीर सहनशील पुत्र, बनो मां के,
मुरझाओ नहीं खिलने से पहले,
अखंड गौरव बनो भारत मां के।
ह्रास होने से बचाओ अपनी उर्जा,
दिशाहीन होने से भावों को रोको
जिंदगी का उद्देश्य नहीं भावुकता,
भ्रमित करें जो उन अस्त्रों को फेकों
प्रभात भले ही चला गया हो,
लेकिन अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है।
साहसी बनो, नासूर बनने से घाव को रोको,
मेरे मन की बस यही दुआ है।

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