मैंने अपने बचपन से देखा है और महसूस किया है शराब एक गलत पेय है,लोग शराब पीकर अपनी सीमाएं और अपनी मर्यादा भूल जाते हैं,या यूं कहो मर्यादा लांघने के लिए उन्हें शराब की ज़रूरत पड़ती है,अक्सर शराब के नशे में डूबा इंसान अश्लीलता
की हद पार कर देता है, सामान्य लोग ऐसे लोगों के पास फटकने से डरते हैं क्या पता नशे में क्या बोल दे और क्या कर दे,सच है शराब असुरों का पेय है, उसे आसुरी प्रवृति से जोड़ा जाता है देवीय गुणों को मदिरा कभी शोभा नहीं देती,क्योंकि देवीय गुणों को सीमा लांघने की आवश्यकता नहीं,शराबियों की हरकतें देखकर ही मुझे बचपन से शराब और शराबी से नफ़रत थी,मुझे हर वो व्यक्ति पसंद नहीं था जो शराब पीता हो,खुद सोचना शराब कोई,क्यों पीना चाहता है, शायद कुछ हदें ऐसी है जिनसे हम सिर्फ शराब पी कर बाहर निकलते हैं, शराब पी कर एक गन्दी मानसिकता बाहर निकल कर आती है, हमारी सोच का स्तर बाहर निकल कर आता है,या यूं कहो कि लोग हद पार करने के लिए शराब का सहारा लेते हैं,हमारे शब्दों का स्तर अश्लीलता की हदें पार करता है,शायद लोग इस हद तक स्वतंत्र होना चाहते है कि लोग कहें शराब के नशे में बोला,दूसरी बात हम किसी व्यक्ति का अनुसरण करते हैं,अपने आप को हर तरह से उसके रंग में ढालते हैै,क्योंकि वो व्यक्ति आध्यात्मिकता से जुड़ा है, हमें ज्ञान देता है,और कोई भी नहीं चाहता हम ऐसे गुरु का अनुसरण करें जिसके अंदर भी सीमाओं को तोड़ने की चाह है,या जो सीमा तोड़ता हो,राम- रहीम को देख लो लाखों लोगों को अपना अनुयायी बना दिया, सदगुरु का नाम जपा दिया,इंसान टैग दे दिया और खुद के कर्म इतने ख़राब,सालों से जो लोग उनके भरोसे इस आस्था में डूबे अंत में उन पर क्या गुजरी,मै सिर्फ इतना कहना चाहती हूं,अगर तुम एक तरफ़ कहते हो तुम आध्यात्मिक हो,तुम हकीकत में एक चिटी को भी नहीं मारते तुम्हारे अंदर इतनी दया है,तो फिर दूसरी तरफ़ तुम एक सीमा से बाहर क्यों निकलना चाहते हो,क्या तुम्हें उस वजूद में घुटन होती है?तुम क्यों कुछ समय के लिए ही सही, मगर एक अजीब रूप में क्यों आना चाहते हो क्या इसका मतलब ये नहीं कुछ पलों के लिए ही सही मगर तुम अपने पिंजर से बाहर निकलना चाहते हो,क्या तुम्हारा उस आध्यात्मिक वजूद में दम घुटता हैं,जिसकी वजह से तुम उससे अलग होना चाहते हो? फिर उसका क्या जो तुम्हे आदर्श समझता है?जिसने खुद को पूरी तरह से तुम्हारे रंग में रंग दिया उसका क्या? ये कैसा आदर्श है जो कभी कभी शराबियों की तरह सड़क के किनारे दारू का नशा करना चाहता है और ये कैसा आदर्श है जो कुछ समय को खुद को आजाद करना चाहता है हदें तोड़ना चाहता है,मै सिर्फ इतना कहना चाहूंगी की जो लोग तुम्हे आदर्श मानते हैं,तुम्हे अनुसरण करते है कम से कम अपनी हरकतों से उनकी भावनाओं को ठेस मत पहुंचाओ,दारू,ना सही शब्द है,ना ही उसे कभी अच्छाई से जोड़ा जा सकता है,ये सीमाओं का उलघंन है,जहां तक नशे की बात करें जीवन के कई पहलुओं में नशा हैं प्रकृति की सुंदरता में नशा है आध्यात्म में नशा है जो हमेशा हमें अच्छे मार्ग पर ले जाता है,हमारे मन और मस्तिष्क को शुद्ध करता है हमें अच्छाई की ओर प्रेरित करता है और दारू हमारी बुद्धि को भ्रष्ट करती है,हमसे नीचता और अश्लीलता की हदें पार करवाती है,गंदगी हमेशा गंदगी ही रहेगी वो चाहे कुछ पल को हमारे जीवन में आए मगर हमें गंदा करके ज़रूर जाएगी,बाकी हर व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत पसंद है वो क्या चाहता है। अध्यात्म और दारू का कोई मेल नहीं है, अध्यात्म एक अमृत है जो हमें अमरता की ओर और दारू एक ज़हर है जो हमे मृत्यु के गर्त में ले के जाती है, आध्यात्मिक हैं तो पूरी तरह से सात्विकता से जुड़ें, कुछ पलो के आंनद के लिए उस वजूद से बाहर निकलने को ना छटपटाए,अगर वाकई अंदर ऐसी छटपटाहट बाकी है तो हमारी आध्यात्मिक्ता केवल ढकोसला है,वरना हम क्यों उससे बाहर निकलना चाहते? तुम भी दूसरों की तरह हदें ही तोड़ना चाहो,अपने अच्छे वजूद से निकलने के लिए छटपटाओ तो बताओ उनमें और तुममें अलग करने को है क्या?मै कैसे अंतर बताऊं?
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