शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

निश्चित अनिश्चित

ना तुम अजर हो,
ना मैं अमर,
अनिश्चित है, जीवन,
और जीवन की घटनाएं।
मगर निश्चित है मृत्यु,
हम सभी की।
मगर उसका भी,समय है अनिश्चित।
ना जाने कब,कहां,किस पल,
आंखिरी सांस हो किसी की।
मगर लड़ते-झगडते हम ऐसे हैं,
जैसे आए हो,यहां अनंत काल को
जैसे हमेशा ही उपलब्ध रहेंगे,
एक दूसरे के लिए,
लड़ने झगड़ने को।
ये लड़ाई-झगड़े तो उसी दिन,
ख़तम हो जाएंगे, जिस दिन
एक भी हममें से,
निकल जाएगा,इस दुनियां से।
उस दिन दफ़न हो जाएंगे,
सारे गिले,सारे शिकवे,
सारी उम्मीदें
सारी हिदायतें।
फिर कहां खोजेंगे उसे?
फिर लड़ने को,गुस्सा दिखाने को।
वो राख़ हो चुका होगा जब,
फिर कभी आवाज़ नहीं दे पाएं,
कभी ना साथ बैठ पाएं।
तब बुराइयां कम,
अच्छाइयां,ज्यादा याद आएंगी,
जो जीते जी,कभी नहीं दी दिखाई।
अजीब बात है ना,
जब तक ज़िन्दा थे,तुम्हें
बुराइयां के सिवा,
कुछ दिखा नहीं।
आज राख हो गए तो,
अच्छाइयां नज़र आईं?
क्या सारी लड़ाई,
इस अस्तित्व से थी?
क्या सारी शिकायत,
इस उपस्थिती से थी?
पता है तुम्हें आज,
पलटवार ना होगा,
क्या यही वजह है,
अब,मेरे अच्छा होने की?

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