सोमवार, 2 सितंबर 2019

अस्थिर मन🌪

मन से हुआ व्यथा का उदगम,
तरंग उठती,उमंग गिरती।
घने घने ये काले बादल,
बहा ले गए नैनों का काजल।
वर्षा ऋतु छाई है हर पल,
इस व्यथा का शिखर कहां है?
इच्छाओं का अंत कहां है?
क्यों आशाएं जन्म है लेती?
क्यों जिज्ञासा शांत नहीं होती?
रुकता नहीं विचारों का मंथन,
मन सोचता,जन है रोता।
क्यों भावों के बीज है बोता?
क्यों सुनहरे ख्वाबों में खोता?
हर पल किसकी प्रतीक्षा रहती?
क्यों स्नेह घृणा को सहती?
आशाओं का सूर्य सो गया,
अनन्त गगन में कहीं खो गया।
यह अंधकार बढ़़ता ही जाता,
आंखों से है स्वप्न चुराता,
तृष्णा बढ़ाता स्नेह घटाता।
पल पल जहन में एक ही अास,
क्यों नहीं इस इच्छा का नाश?
मन क्यों नहीं वश में आता
क्यों राह से है बिछड़ जाता?
व्याकुलता को है क्यों बढ़ाता?
क्यों राही को है भटकाता?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

स्त्री एक शक्ति

स्त्री हूं👧

स्री हूं, पाबंदियों की बली चढ़ी हूं, मर्यादा में बंधी हूं, इसलिए चुप हूं, लाखों राज दिल में दबाए, और छुपाएं बैठी हूं, म...

नई सोच