मन से हुआ व्यथा का उदगम,
तरंग उठती,उमंग गिरती।
घने घने ये काले बादल,
बहा ले गए नैनों का काजल।
वर्षा ऋतु छाई है हर पल,
इस व्यथा का शिखर कहां है?
इच्छाओं का अंत कहां है?
क्यों आशाएं जन्म है लेती?
क्यों जिज्ञासा शांत नहीं होती?
रुकता नहीं विचारों का मंथन,
मन सोचता,जन है रोता।
क्यों भावों के बीज है बोता?
क्यों सुनहरे ख्वाबों में खोता?
हर पल किसकी प्रतीक्षा रहती?
क्यों स्नेह घृणा को सहती?
आशाओं का सूर्य सो गया,
अनन्त गगन में कहीं खो गया।
यह अंधकार बढ़़ता ही जाता,
आंखों से है स्वप्न चुराता,
तृष्णा बढ़ाता स्नेह घटाता।
पल पल जहन में एक ही अास,
क्यों नहीं इस इच्छा का नाश?
मन क्यों नहीं वश में आता
क्यों राह से है बिछड़ जाता?
व्याकुलता को है क्यों बढ़ाता?
क्यों राही को है भटकाता?
छू सकूँ किसी के दिल को अपनी कविता कहानी से तो क्या बात है। अहसास कर सकूं हर किसी के दर्द को अपनी कविता कहानी से तो क्या बात है। जीते जी किसी के काम आ सकूँ तो क्या बात है। kavita in hindi, hindi kavita on life, hindi poems, kavita hindi mein on maa
सोमवार, 2 सितंबर 2019
अस्थिर मन🌪
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
स्त्री एक शक्ति
स्त्री हूं👧
स्री हूं, पाबंदियों की बली चढ़ी हूं, मर्यादा में बंधी हूं, इसलिए चुप हूं, लाखों राज दिल में दबाए, और छुपाएं बैठी हूं, म...
नई सोच
-
क्यों मन तुम्हारा भटक गया है? उस अदृश्य और कल्पित के चारों ओर, सिर्फ भ्रमित ही जो करता हो, उद्गम भी नहीं जिसका, नहीं कोई छोर। क्या...
-
गली में उछलते कूदते बच्चे से न जाने कब मैं बड़ा हो गया। आज आईने में खुद को देखा तो पता लगा मैं बूढ़ा हो गया। मुझे तो सिर्फ और सिर्फ वो बचपन य...
-
स्री हूं, पाबंदियों की बली चढ़ी हूं, मर्यादा में बंधी हूं, इसलिए चुप हूं, लाखों राज दिल में दबाए, और छुपाएं बैठी हूं, म...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें