ज़िन्दगी तो बस...
ऐसे लोग घृणा के,
नफ़रत के पात्र नहीं हैं,
ऐसे लोग उपहास
और आलोचना के पात्र नहीं हैं।
वाकई ऐसे लोग दया के पात्र हैं।
जो भूल चुके हैं अपनो को,
अपने रिश्तों की मिठास को,
साथ के संबल को,
शब्दों की शक्ति को,
जो जी रहे हैं,
एक खोखली सी ज़िन्दगी,
जो खुद नहीं हंस रहे,
न चाह रहे हैं कोई हँसे।
क्या वाकई वो जी रहे हैं?
जो सीमित करना चाह रहे हैं,
अपना दायरा अपने तक,
और सीमित होते होते वो,
अपने से ही अलग होते जा रहे हैं।
वो सोच रहे है,
ज़िन्दगी अकेलेपन में है,
ज़िन्दगी एक तय सीमा के भीतर है
क्या ये सच है?
ज़िन्दगी तो बस...
अपनो से कुछ लम्हों को साझा करने में,
चाय की चुस्की के साथ की गई गपशप,
माँ के हाथ से बने खाने के,
अपनेपन के स्वाद में है।
ज़िन्दगी तो अपनो से गुस्सा
और छोटी मोटी नोक झोक में है।
ज़िन्दगी तो बस...
इन अनमोल रिश्तों में है
मोल तो केवल,
निर्जीव वस्तुओं का लगा करता है।
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